Wednesday 8 July 2020




जलता तार कौन छुए ? लेकिन आग के स्रोत को शांत किए बिना क्या आग बुझेगी?  

कोरोना महामारी के चलते पूरे देश ने भीषण कष्ट झेला और अभी इससे भी ज्यादा बुरा समय आगे दिख रहा है. निस्संदेह भारत में संक्रमित लोग सभी देशों से अधिक होंगे क्योंकि हमारी आबादी इतनी ज्यादा है और संसाधन सीमित. बड़े बड़े नेता और सामाजिक हस्तियों ने भाषण दिए. सलाहें दीं कि इस तरह की मुसीबतों से कैसे निपटा जाए। यह सबसे सही सन्देश था परिवार नियोजन के बारे में एक साफ़ सन्देश देने का और शायद कड़े नियम बनाने का।  आबादी ऐसी बड़ी समस्या बन गई है कि किसी भी आपदा का असर हमारे लिए कई गुना तक बढ़ जाता है।  

पर हम आग के स्रोत की तरफ नहीं देखते और जलती चीजों पर पानी डालते हैं।  स्रोत धधक रहा है , बच्चे धड़ाधड़ पैदा किए जा रहे हैं।  खाने पीने का ठिकाना नहीं , आपातकाल के लिए बचत नहीं, पेरेंटिंग का कोई ज्ञान नहीं पर हमारे युवा खुद को चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य समझे बैठे हैं - उत्तराधिकारी ज़रूर चाहिए। इन उत्तराधिकारियों को बस में धक्के खाते , आधी मजदूरी पर काम करते , नौकरी के लिए दर दर भटकते और 35 - 40 की उम्र में भी माँ बाप का मुंह ताकते हम सबने देखा है पर क्या करें ? परंपरा भी तो की चीज है ,

मजे की बात यह है कि बड़े से बड़े सुधारक भी इससे कन्नी काटते नज़र आते हैं।  गरीबों और उनके बच्चों के लिए बढ़िया काम करने वाले NGO भी सड़क पर भीख मांगते और ढाबों पर काम करते बच्चों को स्कूल भेजते हैं , खाना पानी दवाई किताबें बांटते हैं , पर उनके माँ बाप को गर्भ निरोधक नहीं बांटते। नेता मंत्री आदि गरीबी कम करने के सब्ज़बाग दिखाते हैं, पैसा राशन बांटते हैं , अपनी जाती धर्म की रक्षा का पाखंड करते हैं - पर समाज की उन्नति के लिए सबसे जरुरी 'जनसंख्या नियंत्रण' की बात गोल कर जाते हैं। 

 गरीब मजदूर से सहानुभूति दिखाते समय हमेशा मेरे मन में यह ख्याल भी आया है कि अगर यह सब बस एक एक बच्चा पैदा करते तो क्या इनकी हालत ऐसी ही होती ? पर जब भी मैं यह बात किसी बुद्धिमान व्यक्ति से कहता हूँ वह तुरंत गरीबी , अशिक्षा , जानकारी का अभाव , गर्म जलवायु , काम उम्र में शादी , मनोरंजन के साधनों का अभाव आदि कारण बताना शुरू कर देता है - अरे यह सब कारण मैं दसवीं में पढ़ चुका हूँ - "जनसंख्या विस्फोट" पर निबंध में पढ़ चुका हूँ , और सब पढ़ चुके हैं। जागरूकता की इतनी कमी नहीं है - मैं उस उम्र से TV पर गर्भ निरोधक गोलियों के विज्ञापन देख रहा हूँ जब इनके बारे में पूछने पर 'sex education' के कॉन्सेप्ट से अनभिज्ञ मेरी मम्मी इधर उधर की बातें करके जवाब देने से खुद को बचा लेती थीं और साथ बैठी आंटी से कहती थीं कि TV पे जाने क्या क्या दिखाने लगे हैं। 

तो जानकारी का ऐसा अकाल नहीं है।  अकाल है ज़िम्मेदारी का और self realisation का।  शादी के दो साल होने पर जब लोग हमसे परिवार आगे बढ़ाने के बारे में घुमा फिरा कर पूछते हैं या 'अब तुम भी सोचो' टाइप सलाह देते हैं तो मुझे समझ में आ जाता है कि जनसँख्या विस्फोट के कारण केवल वह नहीं हैं जो दसवीं के निबंध में पढ़े थे। 

- मयंक