Saturday 1 August 2020

क्लोज़ शेव

नवम्बर 2014 में मैंने अपनी पहली कार खरीदी - आल्टो 800 CNG . वैसे न ही कार खरीदने की तुरंत ज़रूरत थी और न ही कार खरीदने की मेरी हैसियत थी. ज़रूरत और हैसियत दोनों के लिहाज़ से साल दो साल इंतज़ार किया जा सकता था. पर बचपन में देखे अभावों के कारण वाहन के प्रति मेरी विशेष महत्वाकांक्षा थी, सो कार आ गई थी. पहली कार लेने की 'फीलिंग' कैसी होती है, यह अपने आप में एक संस्मरण लायक विषय है. रात भर नींद नहीं आई. 

हां तो कार ले ली थी, पर चलाना नहीं आता था. पहले ड्राइविंग स्कूल में ट्रेनिंग ली, फ़िर उसी ड्राइवर को अपने साथ बैठकर अपनी कार चलाई 4-5 दिन, फ़िर हिम्मत करके तड़के सड़कों पर निकला. कुछ डेंट लगे, फ़िर कुछ और लगे और फ़िर हफ्ते भर में मैं कार लेकर उत्तम नगर से नोएडा अपने ऑफिस तक चला गया. फ़िर हफ्ते में दो दिन कार से जाने लगा और ड्राइविंग का कॉन्फिडेंस सातवें आसमान पर जा पहुंचा. इतवार को अकारण ही कार लेकर निकल जाता और पूरी दिल्ली के चक्कर लगाता रहता.  

5 फरवरी को मेरी भान्जी का जन्म हुआ तो मुझे हाइवे ड्राइविंग का बहाना मिल गया. दिल्ली से सीकर अकेले ड्राइव करके जाने को तैयार हो गया. उस समय तक मेरी कार कुछ 900 किलोमीटर चल चुकी थी और बस इतना ही मेरा ड्राइविंग का अनुभव था. पर दिल्ली में इतनी कार चलाकर मेरे  आत्मविश्वास का टेम्पो हाई था. 

तो 7 या 8 फरवरी को सुबह 4 बजे कार लेकर निकला. धौला कुआँ से NH 8 पर राइट टर्न ले ही रहा था कि 'सन्न'  से एक कार पीछे से निकली. 2 सेकंड  लेट होता तो मेरी कार सड़क पर कलाबाज़ी खा जाती. "ओह यहां तो राइट टर्न मना है, अभी याद आया" घर से निकलते ही मेरी सड़क नियमों की जानकारी की कलई खुलने लगी थी. खैर अब तो निकल ही चुके थे. महिपालपुर पार होते होते मुझे सिटी और हाईवे का फर्क समझ में आ गया था. अनजाने ही मेरी कार की गति 70-80 हो चुकी थी क्योंकि सुबह 5 बजे NH8 पर इससे धीरे चलना भी ख़तरनाक है. सिटी ड्राइविंग में किसी और की कार न ठोक देने का डर ही सबसे बड़ा खतरा था पर यहां तो दोनों तरफ दैत्याकार ट्रक पूरी स्पीड में दौड़ रहे थे. जैसे तैसे सड़क पर आंखें जमाए बढ़ा जा रहा था - म्यूजिक तो कब का बंद कर चुका था. ट्रकों का रूप साक्षात यमराज से मिलता जुलता लग रहा था. 

ऐसे में मैंने अपने सामने जाती कार को अपना गुरू बनाया. वह बड़ा परफेक्ट ड्राइवर लग रहा था. बड़ी सफाई से इंडिकेटर देकर ट्रकों को ओवरटेक करके लेन बदलता आगे बढ़ता जाता था।  मैंने अपने मन में ही नियम बना लिया कि अच्छा ड्राइवर बनना है तो अच्छे ड्राइवर के पीछे पीछे चलते  रहो।  इस स्वनिर्मित नियम को सूत्रवाक्य बनाकर मैं उस ड्राइवर का अनुगामी हो गया।  चार - पांच ओवरटेक कार के पीछे पीछे ऐसे मारे कि मुझे खुद अपने लाघव पर आश्चर्य होने लगा ।  15 - 20 किलोमीटर तक आत्मविश्वास से बढ़ता रहा।  उजाला भी होने लगा था सो ट्रकरूपी दैत्यों का रूप इतना भयावह नहीं लग रही थी, धार्मिक सीरियलों में सही ही बताते थे कि निशाचरी शक्तियां रात में अधिक बलवान हो जाती हैं। अब कार में गाने भी बजने लगे थे , बिना म्यूजिक के भी ड्राइविंग में कोई मज़ा है भला।  मेरा गुरु अब कहीं नज़र नहीं आ रहा था।  कदाचित वह किसी ढाबे पर रुक गया हो या आगे निकल गया हो। मैं गुनगुनाता मस्ती में चला जा रहा था। कार की गति भी 90 की हो गई थी।  यह स्पीड NH 8 के लिए कुछ ख़ास नहीं थी पर मेरी आल्टो के लिए यह मर्यादा से थोड़ी अधिक थी , वह भी तब जब ड्राइवर इतना नौसिखिया हो, और इसका अहसास मुझे जल्दी ही हो गया।  

मेरे सामने एक ट्रक लगभग 60 की स्पीड से चल रहा था और मुझे उसके कारण बहुत अड़चन हो रही थी।  उसको ओवरटेक करना ही था पर राइट लेन खाली ही नहीं मिल रही थी।  तब मैंने वह निर्णय लिया जो भारतीय हाइवे पर बहुत सामान्य है - लेफ्ट से ओवरटेक करना। लेफ्ट वाली लेन खाली थी।  लगभग आधा किलोमीटर दूर एक ट्रक दिख रहा था बाईं लेन में।  मैंने अपने कुछ देर पहले बने गुरु का स्मरण किया और तेज़ी से लेफ्ट लेकर ओवरटेक करने का निश्चय किया।  मेरी गणित शुरू से अच्छी रही है - एक रफ़ कैलकुलेशन के हिसाब से मुझे पता था की बाईं लेन वाले ट्रक से मिलने से लगभग 100 - 200 मीटर पहले मैं दोबारा अपनी मिडल लेन में आ जाऊँगा - वह भी तब जब बाईं लेन वाला ट्रक 40 की मामूली गति से चल रहा हो।  मैंने स्पीड बढ़ाई और बाईं लेन में आ गया. पर यह क्या ? जितनी देर में मैंने अपने दाहिने तरफ वाली ट्रक को क्रॉस किया यह ट्रक तो एकदम पास आ गया. ऐसा क्यों ? और तब मैंने वह नोटिस किया जो सड़क दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा कारण है।  मेरे सामने वाला ट्रक खड़ा था - वह चल ही नहीं रहा था , कोहरे और नौसिखियापन की वजह से यह गलती हुई थी । और इस गति से मैं अगले 5-6 सेकंड में उस ट्रक में घुसने वाला था। राइट ले नहीं सकता था क्योंकि वह ट्रक अभी पूरा ओवरटेक नहीं हुआ था।  वह 5 सेकंड शायद आज तक के सबसे निर्णायक 5 सेकंड हैं मेरी ज़िंदगी के।  मुझे ऐसे में अपने असली ड्राइविंग गुरु का ध्यान आया जिसने मुझे कार चलाना सिखाया था - संजय यादव ! संजय कहता था - " सर कभी एक साथ ब्रेक मत मारना, यूनिफार्म ब्रेक मारना जिससे कार स्किड न हो।"   मैंने प्लान बना लिया था , हल्के ब्रेक लेकर अपनी स्पीड कम की और दाहिने वाले ट्रक को आगे निकलने का इंतज़ार किया। प्लान यह था कि जैसे ही राइट वाला ट्रक आगे निकलेगा, मैं फुर्ती से राइट लेन  में आ जाऊंगा - मन में बस यह उम्मीद थी कि तब तक सामने वाले ट्रक से कुछ फासला बना रहे।  मैं अपनी जान बचाने के बारे में 50 % पक्का था , क्योकि मैंने रिस्क मैनेजमेंट कर लिया था।  फुर्ती से कम से कम इतना राइट तो ले ही लूंगा कि कार की राइट साइड टक्कर से बच जाए।  लेफ्ट साइड की कार टकरा जाएगी यह पक्का था पर मुझे इतनी चोट तो नहीं आएगी कि जान चली जाए। यह सब प्लान मेरे दिमाग में 2 - 3  सेकंड में ही बन गया।  पता नहीं दिमाग की कौन सी सेल सक्रिय हो गई थी। 

तो मैंने प्लान के मुताबिक काम किया। राइट साइड वाला ट्रक आगे निकला , मैंने फुर्ती से स्टीयरिंग मोड़कर सीधा किया , मेरी कैलकुलेशन ठीक थी - टकराने से लगभग 20 गज पहले कार की राइट साइड सामने खड़े दानव की रेंज से बाहर आ गई थी , मैंने थोड़ी और फुर्ती दिखाकर लेफ्ट साइड भी बचाने की कोशिश की - आधे सेकंड पहले कार के क्रैश हो जाने की कीमत पर जान बचने में खुश था , अब जान बचते देख अपनी प्यारी कार को डैमेज होने से बचाने की चिंता हो गई। मानव स्वभाव सचमुच विचित्र है। फाइनली वह ट्रक एकदम सामने आ गया , मैं एक तगड़े झटके के लिए तैयार हो गया - काफी धीमी होने पर भी लगभग 40 - 50 की स्पीड अब भी थी।

पर किस्मत मेहरबान थी।  कार की लेफ्ट साइड भी बच गई थी।  बस साइड मिरर 'धाड़'  से उस ट्रक के किनारे में लगा।  मैंने रियर व्यू देखा , सौभाग्य से पीछे कोई वाहन नहीं था नहीं तो पीछे से कार का कचूमर बनना तय था. मैंने कार उसी दैत्य के आगे रोकी और स्टीयरिंग पर सर रखकर आँखें बंद कर लीं  , पूरा शरीर पसीने से तर-बतर था और धड़कन की आवाज़ एकदम मोटर की तरह सुनाई दे रही थी। जान बचने का सुकून और गुजरे खतरे की भयावहता ने मिलकर एक नई भावना को जन्म दिया था जिससे मैं आज तक अनजान था।  15 मिनट मैं आँख बंद किए पड़ा रहा फिर उतरकर कार की लेफ्ट साइड देखी।  साइड मिरर का नामो निशान नहीं था।  फिर पीछे देखा - 20  गज पर साइड मिरर पड़ा था - सैकड़ों टुकड़ों में चूर-चूर।  मुझे लगा वह मेरी खोपड़ी चकनाचूर पड़ी है - और यह सोचते ही मैं दुबारा पसीने में नहा गया। 

इस घटना से मैंने दो बातें सीखीं  - एक कि अंतिम समय तक प्रयास करने पर कई बार वह काम भी हो जाते हैं जिनके चांसेस लेशमात्र के हों।  और दूसरा यह कि जब जान पर बनी हो तो दिमाग विलक्षण रूप से तेज़ चलता है. और चाहे इसको अच्छा कहा जाए या बुरा - एडवेंचर से तौबा उस घटना के बाद भी मैंने नहीं की। 

और हाँ , वहां से मैं वापस 90 किलोमीटर दिल्ली नहीं लौटा , 220 किलोमीटर आगे सीकर गया - पर बहुत सावधानी के साथ , और 2  दिन बाद वापस दिल्ली भी आया। डर ने डर को ख़त्म कर दिया था। 


Wednesday 8 July 2020




जलता तार कौन छुए ? लेकिन आग के स्रोत को शांत किए बिना क्या आग बुझेगी?  

कोरोना महामारी के चलते पूरे देश ने भीषण कष्ट झेला और अभी इससे भी ज्यादा बुरा समय आगे दिख रहा है. निस्संदेह भारत में संक्रमित लोग सभी देशों से अधिक होंगे क्योंकि हमारी आबादी इतनी ज्यादा है और संसाधन सीमित. बड़े बड़े नेता और सामाजिक हस्तियों ने भाषण दिए. सलाहें दीं कि इस तरह की मुसीबतों से कैसे निपटा जाए। यह सबसे सही सन्देश था परिवार नियोजन के बारे में एक साफ़ सन्देश देने का और शायद कड़े नियम बनाने का।  आबादी ऐसी बड़ी समस्या बन गई है कि किसी भी आपदा का असर हमारे लिए कई गुना तक बढ़ जाता है।  

पर हम आग के स्रोत की तरफ नहीं देखते और जलती चीजों पर पानी डालते हैं।  स्रोत धधक रहा है , बच्चे धड़ाधड़ पैदा किए जा रहे हैं।  खाने पीने का ठिकाना नहीं , आपातकाल के लिए बचत नहीं, पेरेंटिंग का कोई ज्ञान नहीं पर हमारे युवा खुद को चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य समझे बैठे हैं - उत्तराधिकारी ज़रूर चाहिए। इन उत्तराधिकारियों को बस में धक्के खाते , आधी मजदूरी पर काम करते , नौकरी के लिए दर दर भटकते और 35 - 40 की उम्र में भी माँ बाप का मुंह ताकते हम सबने देखा है पर क्या करें ? परंपरा भी तो की चीज है ,

मजे की बात यह है कि बड़े से बड़े सुधारक भी इससे कन्नी काटते नज़र आते हैं।  गरीबों और उनके बच्चों के लिए बढ़िया काम करने वाले NGO भी सड़क पर भीख मांगते और ढाबों पर काम करते बच्चों को स्कूल भेजते हैं , खाना पानी दवाई किताबें बांटते हैं , पर उनके माँ बाप को गर्भ निरोधक नहीं बांटते। नेता मंत्री आदि गरीबी कम करने के सब्ज़बाग दिखाते हैं, पैसा राशन बांटते हैं , अपनी जाती धर्म की रक्षा का पाखंड करते हैं - पर समाज की उन्नति के लिए सबसे जरुरी 'जनसंख्या नियंत्रण' की बात गोल कर जाते हैं। 

 गरीब मजदूर से सहानुभूति दिखाते समय हमेशा मेरे मन में यह ख्याल भी आया है कि अगर यह सब बस एक एक बच्चा पैदा करते तो क्या इनकी हालत ऐसी ही होती ? पर जब भी मैं यह बात किसी बुद्धिमान व्यक्ति से कहता हूँ वह तुरंत गरीबी , अशिक्षा , जानकारी का अभाव , गर्म जलवायु , काम उम्र में शादी , मनोरंजन के साधनों का अभाव आदि कारण बताना शुरू कर देता है - अरे यह सब कारण मैं दसवीं में पढ़ चुका हूँ - "जनसंख्या विस्फोट" पर निबंध में पढ़ चुका हूँ , और सब पढ़ चुके हैं। जागरूकता की इतनी कमी नहीं है - मैं उस उम्र से TV पर गर्भ निरोधक गोलियों के विज्ञापन देख रहा हूँ जब इनके बारे में पूछने पर 'sex education' के कॉन्सेप्ट से अनभिज्ञ मेरी मम्मी इधर उधर की बातें करके जवाब देने से खुद को बचा लेती थीं और साथ बैठी आंटी से कहती थीं कि TV पे जाने क्या क्या दिखाने लगे हैं। 

तो जानकारी का ऐसा अकाल नहीं है।  अकाल है ज़िम्मेदारी का और self realisation का।  शादी के दो साल होने पर जब लोग हमसे परिवार आगे बढ़ाने के बारे में घुमा फिरा कर पूछते हैं या 'अब तुम भी सोचो' टाइप सलाह देते हैं तो मुझे समझ में आ जाता है कि जनसँख्या विस्फोट के कारण केवल वह नहीं हैं जो दसवीं के निबंध में पढ़े थे। 

- मयंक 

Thursday 7 May 2020

समाज को समय के आधार पर दो भागों में बांटा जा सकता है।

एक बुद्ध से पहले का मान्यताओं , रूढ़ियों और अन्धविश्वास का समाज और दूसरा बुद्ध के बाद का तर्क , तथ्य और सत्यान्वेषण का महत्त्व समझने वाला समाज।  बुद्ध पहले थे जिन्होंने प्रश्न और तर्क करने का सुझाव दिया और मान्यताओं को परखने की बात की।

हम सौभाग्य से बुद्ध के बाद के समाज में जन्मे हैं, और दुर्भाग्य से मान्यताओं को तर्क और प्रश्न से परे रखते हैं। बुद्ध के बारे में अवश्य सबको जानना चाहिए, यह जानकारी बौद्ध साहित्य से न मिले तो और भी उत्तम।

बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनाएं !




Saturday 7 March 2020

दो नावों की सवारी (मयंक शर्मा )

बचपन से सुनता रहा अलग अलग लोगों से ,
अलग अलग हालात में , अलग अलग लहजे में
डांटते समझाते माँ बाप से या रजाई में दादी-नानी से
लाख टके की बात हो जैसे , बड़े लोग समझाते थे
" दो नावों की सवारी , मतलब डूबने की तैयारी"

बड़ा होने पर पढ़े कवियों के मुक्तक दोहे
कहानियों की शिक्षाएं , पाठ्य पुस्तक की बोध कथाएं
शब्द बदले भाव नहीं, जैसे दादी की कहानी की बस बदल गई हो वर्दी
" लालच में दोनों गए , माया मिली न राम"
" दो नावों की सवारी , मानो डूबने की तैयारी "

पता नहीं क्यों नहीं जमी यह सूक्ति कभी मुझको
तर्क आत्मसात नहीं कर सका मान्यता को
माना दो नावों पर साथ चढ़ना जोखिम है ,
पर दूसरी नाव की ज़रूरत पड़ सकती है यह तो लाज़िम है
जिस नाव पर भरोसा किया वही मंझधार में डूबने लगी तो ?

तो हमेशा , हर जगह दूसरी नाव तैयार रखी मैंने
पहली नाव से सस्ती पर भरोसेमंद
पहली से थोड़ी कमज़ोर , फिर भी उपयोगी
पहली से कम खूबसूरत , पर टिकाऊ
जो भले ही उतनी तेज़ न हो , पर कम से कम डूबे नहीं

आज डूबते देखता हूं कई एक नाव वालों को ,
उनकी तेज़ , मजबूत नावें डूब रही हैं उनको लेकर
सर्वस्व जिसपर लगा दिया वही  धोखा दे गया  बहुतों को
जैसे इनकी डूबी है , वैसे मेरी भी डूब सकती है
शुक्र है मेरे पास एक और नाव है
हल्की सही , सुस्त सही , कमज़ोर सही , बेकार सही
पर क्या तिनका ही बड़ा सहारा नहीं होता डूबने वाले को ?




Wednesday 27 March 2019

३ लघु कविताएं

        ( मयंक शर्मा)

  (१) चुनावी बदलाव

पग कभी हरी कभी, नीली कभी केसरी
कभी पतलून कभी. अचकन डाले हैं
कभी परनाम और कभी वनक्कम करें
वेश-भूषा भाषा रूप, इनके निराले हैं
शॉर में नहाने वाले, गंगाजल उड़ेल रहे
पिज़्ज़ा वाले दलित के, तोड़ते निवाले हैं ,
गाली देने वाले आज, हाल-चाल पूछ रहे
लगता है देश में चुनाव आने वाले हैं।


(२) कुछ नसीब वाले

बड़े घर जन्मे बड़े स्कूलों में पढ़े लिखे
बड़े बिजनेस बड़े इनके नसीब हैं।
बड़ा करज़ा उठायें , उसको नहीं चुकाएं ,
देश छोड़ जाएँ नेता जनों के करीब हैं
श्रम से कमाने वाले , इज़्ज़त की खाने वाले
ईमान बचाने वाले देश में गरीब हैं
भ्रष्टाचारी  अपराधी दावत उड़ाते यहाँ
भारत के क़ानून भी कितने अजीब हैं।


(३) कॉमन मैन

बड़े दिवास्वप्न देख देख के बड़ा हुआ ये,
अब बड़े दफ्तरों में फाइलें घुमाता है.
सोचता था बदलूंगा देश औ' समाज कभी
मेट्रो बदलने में आज धक्के खाता है
तनख्वाह के आते ही क्रेडिट चुकाने वाला
फिर से ये क्रेडिट पे महीना चलाता है
तुम्हारे पड़ोस में ही कहीं घूम रहा होगा
आम आदमी है ये कहीं भी मिल जाता है।

Monday 24 December 2018

एक प्रचंड मोटिवेटेड आदमी


कल एक प्रचंड मोटिवेटेड दोस्त मिल गया।  पहले - पहल तो मैं देखकर पहचान ही नहीं पाया।  पिछली बार जब इससे मिला तो यह एक अलग ही आदमी था। कॉलेज में मेरा जूनियर हुआ करता था। मेहनती , यथार्थवादी , जीवन और संसार के लिए सकारात्मकता और लोगों के लिए सम्मान से भरा हुआ. मुझे बहुत पसंद करता था और मुझे भी बहुत पसंद था।  हम जब भी मिलते एक दूसरे का हाल चाल-लेते और फिर समय काटने के लिए खेल , राजनीति , फिल्मों , भविष्य आदि की चर्चा किया करते थे।

इस बार उसका रुबाब ही अलग। फुदकता हुआ सा आया और औपचारिकता में जल्दी-जल्दी मेरा हाल चाल पूछा।  फिर मेरे पूछने से पहले ही अपनी 'प्रोग्रेस' के बारे में विस्तार से बताने लगा (यों मुझे उसकी प्रोग्रेस इतनी बढ़ा चढ़ा कर बताने लायक लगी नहीं थी)। बीच-बीच में गाहे बगाहे विदेशी कलाकारों के एक्सेंट में "हा - हा" करके हंस देता। जैसे-जैसे बातें आगे बढ़ीं , मैंने गौर किया  100 - 200 शब्दों के बाद कोई उधार की सूक्ति बोल देता। इसके अलावा मैंने उसकी आँखों में अपने लिए उपेक्षा का भाव भी साफ़ देखा।  बात से बात निकलती गयी और सहपाठियों की बातें होने लगीं।  जैसे ही मैं किसी के बारे में कुछ कहता , प्रचंड मोटिवेटेड उसको अपने वन-लाइनर से हेय साबित कर देता , जैसे

मैं - अरे पता है , वो तुम्हारे सेमेस्टर में पढ़ने वाला अजय फलानी कंपनी में GM है , मेरे ऑफिस की बिल्डिंग में ही उसका ऑफिस है।  मिलता रहता है।
प्र.मो. - हाँ लेकिन परिवार के लिए ज़रा भी समय नहीं उसके पास , नो टाइम मैनेजमेंट , सैड ! हाँ तो मैं बता रहा था कि रेंज रोवर का नया मॉडल देखा आपने ? क्या कार है भाई साहब !

मैं  -  और वह सतीश ने अपना स्टार्ट अप डाल दिया , उसके लिंक्डइन पर अपडेट देखा।
प्र.मो. - हाँ , शुरू तो कर दिया लेकिन बहुत पुराना सा कॉन्सेप्ट है , फंडिंग कहीं से मिल नहीं पाएगी 'इवेंचुअल्ली' बंद करना पड़ेगा। हाँ तो मैं बता रहा था कि पेरिस वकेशन के लिए बहुत अच्छी जगह है , सोच लिया है कि जल्दी ही जाऊंगा वहां। 

ऐसे ही दो चार और दोस्तों की बात हुयी और उनकी सफलता को वह अपनी 'लेकिन' की तलवार से काटकर अपनी कोई बचकानी बात शुरू कर देता , मुझे इतने बड़े आदमी के साथ खड़े होने में भी शर्म आयी।  क्या पता अभी बोले - "क्या यार तुम अभी तक इतनी अदनी सी नौकरी कर रहे हो और इतनी घटिया गाड़ी चलाते हो या इतने सस्ते ब्रांड की सिगरेट फूंकते हो या इतनी छोटी सोसाइटी में रहते हो।"  मैं चुपचाप बहाना बनाकर निकलने ही लगा था की प्रचंड मोटिवेटेड ने मुझसे अगले मेट्रो स्टेशन तक की लिफ्ट मांग ली। मैं हैरान रह गया।

वर्चुअल दुनिया में मोटिवेशन की बाढ़ आयी हुयी है। फेसबुक , व्हाट्सऐप , इंस्टाग्राम  सब मोटिवेशनल कोट्स से ठसे पड़े हैं। रोज़ कोई न कोई प्रचंड मोटिवेटेड दोस्त कोई ऐसा ही कोट शेयर या पोस्ट करता रहता है।

एक काली या नीली बैकग्राउंड में कोई सूट-घड़ी पहने क्रूर सी मुस्कान वाला हॉलीवुडअभिनेता बड़ी सी कार (या छोटे से जहाज ) के आगे खड़ा है।  नीचे लिखा हुआ है - "Kill them with success, bury them with a smile (उन्हें सफलता से मारिये और मुस्कान से दफना दीजिये )"

एक दहाड़ते शेर की तस्वीर है , किसी शिकार का गला चीरने को आतुर।  सूक्ति लिखी है अंग्रेजी में - "The world is a jungle. you either fight and dominate or hide and evaporate (संसार एक जंगल है।  आप या तो लड़कर शासन करिये या छुपकर ख़त्म हो जाइये "

सोशल मीडिया पर एक्टिव प्रचंड मोटिवेटेड युवक-युवतियां धड़ाधड़ ऐसी तस्वीरें शेयर करते जाते हैं। मज़े की बात यह है कि दूसरे के शेयर किये गए सन्देश नहीं पढ़ते जैसे शेर दूसरे का मारा शिकार नहीं खाता।  हमारे सभी प्रचंड मोटिवेटेड भाई 'शेर' हैं।
मुझे ऐसे संदेशों में कोई मोटिवेशन नहीं दिखता।  ऐसे विचार जिसमें उन सभी को मारने , दफनाने या दबाने की बात हो जो तुमसे या तुम्हारी  तरह जीवन जीने के तरीके से इत्तिफाक नहीं रखते हैं - ये मोटिवेशन क्योंकर है ? क्यों इसको तुम्हारी नकारात्मक महत्वाकांक्षा , असुरक्षा या असहिष्णुता न माना जाए ?

दरअसल मेरी समझ में ये सब असुरक्षा को गौरवान्वित करने के तरीके हैं। एक टिपिकल प्रचंड मोटिवेटेड अक्सर असुरक्षित जीवन जीता है ।  उसको पता होता है कि उसके साथ के बहुत से लोग उससे बेहतर हो गए  ( बेहतर का अर्थ सिर्फ आर्थिक सफलता को न माना जाए ) और वह किसी कारणवश वैसा होने से रह गया ।  हो सकता है की कुछ गुण उसके अंदर भी बेहतर हों पर असुरक्षा उसको अपने गुणों को नहीं देखने देती , वह अपनी मटमैली कमीज़ को दूसरे की कमीज़ से बेहतर दिखाने के लिए इस जहरीले मोटिवेशन रुपी डिटर्जेंट का सहारा लेता है , जो सस्ते इंटरनेट के युग में बहुतायात में मौजूद है। इन  कटूक्तियों से  (जिनको वह सूक्तियाँ समझता है)  वह उनकी उपेक्षा करता रहता है जिनसे उपेक्षित वह खुद को महसूस करता है। यह बहुत दयनीय स्थिति होती है लेकिन उस व्यक्ति को यह शराब के नशे है "हाई इफ़ेक्ट" देती है। दूसरों को जबरन छोटा दिखाकर यह अपनी और अपने जैसों की दुनिया में श्रेष्ठ महसूस करता है।
काश यह युवा औरों की बेइज़्ज़ती करे बिना अपनी उपलब्धियों पर गर्व महसूस करें तो उनको वास्तविक मोटिवेशन और हिम्मत महसूस हो।

मैं जब अपने उस प्रचंड मोटिवेटेड दोस्त को फुदकते हुए अपनी ओर आते देखता हूँ तो लगता है भयंकर दांत और पंजों वाला वह तस्वीर में बना हुआ शेर सजीव होकर मेरा गला चीरने के लिए आगे बढ़ रहा है।

Thursday 13 December 2018

कारपूल पार्टनर

आज अपनी सोसाइटी के ही शंकर जी कारपूल में मिल गए।  पेट्रोल की कीमत को देखते हुए मैंने कारपूल ऐप की सदस्यता ले रखी है।  पेट्रोल का खर्चा तो निकलता ही है साथ में लोगों से जान पहचान हो जाती है सो अलग । कभी कोई अपने जैसा भाई मिल गया तो गप्पें मारते समय कट गया और कोई बोर मिल गया तो विचारमग्न होने का अभिनय किया और उसकी बकवास से बच गया। धीरे-धीरे लोगों को झेलने का एक्सपर्ट बन चुका हूँ। मनोरंजन के लिए मैंने मन ही मन  बहुतों के निक नेम रख लिए हैं  -  ज्यादातर निकनेम किसी न किसी जानवर के नाम पर हैं  - पता नहीं क्यों मुझे हर आदमी के अंदर किसी न किसी जानवर की झलक दिख जाती है।  आई टी कंपनी में काम करने वाला हाइपरऐक्टिव अमन "चीता" है और बहुत ज्यादा बोलने वाला सुमित "तोताराम" और रोज़ कार में ही अपने जूनियरों पर फ़ोन पर चिल्लाने वाला जतिन "लकड़बग्घा". ऐसे ही औरों के भी हैं जो बस मुझे ही पता थे।  मैं इन लोगों को देखते ही मन ही मन उनके निकनेम को सोचकर मुस्कुरा उठता हूँ , इसका यह भी फायदा है कि ये कारपूल पार्टनर्स मुझे हंसमुख समझते हैं । 
                                      शंकर जी सबसे अलग निकले।  उम्र करीब बावन साल , पूरी दुनिया घूमे हुए।  अभी गुड़गांव की किसी फाइनेंस कंपनी में कंसल्टिंग कर रहे हैं (इतना परिचय ये whatsapp chat पर ही दे चुके थे )।  "चार-पांच लाख महीने का कमाता होगा ये आदमी। अगर ये आदमी बोलने वाला हुआ ये थोड़ी बढ़िया बातें करेगा - योरोप और अमरीका की , CEO और डायरेक्टर्स की , लीडरशिप के कुछ सबक बताये शायद और आगे किसी अच्छी नौकरी के लिए सिफारिश कर दे तो कहना ही क्या . उम्र ज्यादा है इसलिए अगर बोर भी किया तो जवाब देना होगा।"  मैंने एक सरसरी नज़र उनपर डाली।  चंदला सर , विदेशी चश्मा, करीने से पहना हुआ नजाकत भरा सूट जो शायद  'अरमानी' का हो।  देखकर ऐसा लगा जैसे कोई "सफ़ेद बाघ " हो।  ये लो , इनका भी नामकरण हो गया - सफ़ेद बाघ !
                                                   सफ़ेद बाघ ने बोलना शुरू किया।  पहले कुछ इधर उधर की बातें हुईं।  कारपूल के फायदे डिस्कस  हुए।  फिर कुछ परिवार की बातें हुयी। फिर आप बोले - "मेरा तो संडे सत्संग में ही जाता है।  बढ़िया लोगों की संगत , भक्ति-भाव , सात्विक आचार-व्यवहार आदि " जिसका डर था वही हुआ। शंकर जी बोर करने जा रहे थे , मैंने इसको चैलेंज के तौर पर लिया।  अपना  शास्त्रीय ज्ञान दिखाने का मौका मिला।  पहले महाभारत और गीता की बातें हुईं , फिर परोपकार का महत्व , त्याग की प्रधानता जैसे दार्शनिक विषय छेड़े गए।  पर मैंने नोटिस किया कि शंकर जी को मेरी कोई बात सुनने में कोई विशेष रूचि नहीं थी। वो अपने दार्शनिक अचीवमेंट्स बताने में मगन थे।  किसी स्पिरिचुअल गुरु को फॉलो करते थे शंकर जी, इनके पिताजी गुरूजी के पिताजी से दीक्षित थे और इनके दादाजी गुरूजी के दादाजी से. पीढ़ियों से सात्विक और परम आस्तिक परिवार !  मांस , मछली , अंडा , प्याज , लहसुन कुछ नहीं खाते थे।  पूरी दुनिया घूमी लेकिन सात्विक आहार न त्यागा।  आहार सात्विक तो विचार अहिंसक।  प्याज , लहसुन , मांस इत्यादि कामाग्नि और हिंसा को भड़काते हैं इसलिए न तो खुद खाते हैं  परिवार में किसी को  खाने देते हैं।  पत्नी शादी से पहले खाती थी , पर शादी के बाद उसको भी सात्विक आहार पर ले आये।  बीच में दस मिनट आँख बंद करके प्रार्थना भी की शंकर जी ने।  इतने बढ़िया व्यक्ति !!! मैं मन ही मन उनको "सफ़ेद बाघ" सोचने पर पछता रहा था।  "इनके लिए कोई निकनेम नहीं।  संत पुरुष हैं , फादर फिगर हैं " मैंने मन ही मन सोचा।

                            अचानक एक कार वाला खतरनाक ढंग से ओवरटेक कर गया , हमारी कार बाल-बाल बची।  "ऊप्स ! " मेरे मुंह से गाली निकलते-निकलते बची , लेकिन यह क्या ? शंकर जी के मुंह से धराप्रवाह गालियां बह रही थीं। उन्होंने जाने कैसे यह भी देख लिया था कि कार कोई औरत ड्राइव कर रही थी।  उसके चरित्र और उसके परिवार वालों को शंकर जी ने अपने संस्कारवान शब्दों से विभूषित किया।  अब वो रंग में आ चुके थे।  अपने ऑफिस में काम करने मॉडर्न लेडीज का अपने पति से छुपकर कहाँ - कहाँ सम्बन्ध है , उनके फ्लैट के नीचे वाले फ्लैट में रहने वाली नेवी अफसर की अकेली पत्नी के पास कैसे कॉलेज के लड़के आते हैं और चुस्त कपडे पहनने वाली लड़कियाँ  कैसे छेड़-छाड़ को "एन्जॉय" करती हैं , ये सब ज्ञान शंकर जी के श्रीमुख  से गिरता रहा और मैं उनकी उम्र का लिहाज़ करके सुनता रहा।  मन कर रहा था कि परिवाद करूँ पर  बमुश्किल खुद को ज़ब्त किये रहा ।
                             उनके ऑफिस के नीचे  कार रोककर उनपर  नज़र डाली।  वही खल्वाट सर , वही विदेशी चश्मा , अरमानी सूट , चमचमाते जूते।  सफ़ेद बाघ ? नहीं-नहीं।  ध्यान से देखा तो बाघ की खाल में भेड़िया बैठा  था।  ब्रांडेड कपड़ों में एक रूढ़िवादी बुर्जुआ बैठा था। अहिंसक,सात्विक, संस्कारी चादर में से हिंसक घिनौनी सोच झाँक रही थी।