Saturday 1 August 2020

क्लोज़ शेव

नवम्बर 2014 में मैंने अपनी पहली कार खरीदी - आल्टो 800 CNG . वैसे न ही कार खरीदने की तुरंत ज़रूरत थी और न ही कार खरीदने की मेरी हैसियत थी. ज़रूरत और हैसियत दोनों के लिहाज़ से साल दो साल इंतज़ार किया जा सकता था. पर बचपन में देखे अभावों के कारण वाहन के प्रति मेरी विशेष महत्वाकांक्षा थी, सो कार आ गई थी. पहली कार लेने की 'फीलिंग' कैसी होती है, यह अपने आप में एक संस्मरण लायक विषय है. रात भर नींद नहीं आई. 

हां तो कार ले ली थी, पर चलाना नहीं आता था. पहले ड्राइविंग स्कूल में ट्रेनिंग ली, फ़िर उसी ड्राइवर को अपने साथ बैठकर अपनी कार चलाई 4-5 दिन, फ़िर हिम्मत करके तड़के सड़कों पर निकला. कुछ डेंट लगे, फ़िर कुछ और लगे और फ़िर हफ्ते भर में मैं कार लेकर उत्तम नगर से नोएडा अपने ऑफिस तक चला गया. फ़िर हफ्ते में दो दिन कार से जाने लगा और ड्राइविंग का कॉन्फिडेंस सातवें आसमान पर जा पहुंचा. इतवार को अकारण ही कार लेकर निकल जाता और पूरी दिल्ली के चक्कर लगाता रहता.  

5 फरवरी को मेरी भान्जी का जन्म हुआ तो मुझे हाइवे ड्राइविंग का बहाना मिल गया. दिल्ली से सीकर अकेले ड्राइव करके जाने को तैयार हो गया. उस समय तक मेरी कार कुछ 900 किलोमीटर चल चुकी थी और बस इतना ही मेरा ड्राइविंग का अनुभव था. पर दिल्ली में इतनी कार चलाकर मेरे  आत्मविश्वास का टेम्पो हाई था. 

तो 7 या 8 फरवरी को सुबह 4 बजे कार लेकर निकला. धौला कुआँ से NH 8 पर राइट टर्न ले ही रहा था कि 'सन्न'  से एक कार पीछे से निकली. 2 सेकंड  लेट होता तो मेरी कार सड़क पर कलाबाज़ी खा जाती. "ओह यहां तो राइट टर्न मना है, अभी याद आया" घर से निकलते ही मेरी सड़क नियमों की जानकारी की कलई खुलने लगी थी. खैर अब तो निकल ही चुके थे. महिपालपुर पार होते होते मुझे सिटी और हाईवे का फर्क समझ में आ गया था. अनजाने ही मेरी कार की गति 70-80 हो चुकी थी क्योंकि सुबह 5 बजे NH8 पर इससे धीरे चलना भी ख़तरनाक है. सिटी ड्राइविंग में किसी और की कार न ठोक देने का डर ही सबसे बड़ा खतरा था पर यहां तो दोनों तरफ दैत्याकार ट्रक पूरी स्पीड में दौड़ रहे थे. जैसे तैसे सड़क पर आंखें जमाए बढ़ा जा रहा था - म्यूजिक तो कब का बंद कर चुका था. ट्रकों का रूप साक्षात यमराज से मिलता जुलता लग रहा था. 

ऐसे में मैंने अपने सामने जाती कार को अपना गुरू बनाया. वह बड़ा परफेक्ट ड्राइवर लग रहा था. बड़ी सफाई से इंडिकेटर देकर ट्रकों को ओवरटेक करके लेन बदलता आगे बढ़ता जाता था।  मैंने अपने मन में ही नियम बना लिया कि अच्छा ड्राइवर बनना है तो अच्छे ड्राइवर के पीछे पीछे चलते  रहो।  इस स्वनिर्मित नियम को सूत्रवाक्य बनाकर मैं उस ड्राइवर का अनुगामी हो गया।  चार - पांच ओवरटेक कार के पीछे पीछे ऐसे मारे कि मुझे खुद अपने लाघव पर आश्चर्य होने लगा ।  15 - 20 किलोमीटर तक आत्मविश्वास से बढ़ता रहा।  उजाला भी होने लगा था सो ट्रकरूपी दैत्यों का रूप इतना भयावह नहीं लग रही थी, धार्मिक सीरियलों में सही ही बताते थे कि निशाचरी शक्तियां रात में अधिक बलवान हो जाती हैं। अब कार में गाने भी बजने लगे थे , बिना म्यूजिक के भी ड्राइविंग में कोई मज़ा है भला।  मेरा गुरु अब कहीं नज़र नहीं आ रहा था।  कदाचित वह किसी ढाबे पर रुक गया हो या आगे निकल गया हो। मैं गुनगुनाता मस्ती में चला जा रहा था। कार की गति भी 90 की हो गई थी।  यह स्पीड NH 8 के लिए कुछ ख़ास नहीं थी पर मेरी आल्टो के लिए यह मर्यादा से थोड़ी अधिक थी , वह भी तब जब ड्राइवर इतना नौसिखिया हो, और इसका अहसास मुझे जल्दी ही हो गया।  

मेरे सामने एक ट्रक लगभग 60 की स्पीड से चल रहा था और मुझे उसके कारण बहुत अड़चन हो रही थी।  उसको ओवरटेक करना ही था पर राइट लेन खाली ही नहीं मिल रही थी।  तब मैंने वह निर्णय लिया जो भारतीय हाइवे पर बहुत सामान्य है - लेफ्ट से ओवरटेक करना। लेफ्ट वाली लेन खाली थी।  लगभग आधा किलोमीटर दूर एक ट्रक दिख रहा था बाईं लेन में।  मैंने अपने कुछ देर पहले बने गुरु का स्मरण किया और तेज़ी से लेफ्ट लेकर ओवरटेक करने का निश्चय किया।  मेरी गणित शुरू से अच्छी रही है - एक रफ़ कैलकुलेशन के हिसाब से मुझे पता था की बाईं लेन वाले ट्रक से मिलने से लगभग 100 - 200 मीटर पहले मैं दोबारा अपनी मिडल लेन में आ जाऊँगा - वह भी तब जब बाईं लेन वाला ट्रक 40 की मामूली गति से चल रहा हो।  मैंने स्पीड बढ़ाई और बाईं लेन में आ गया. पर यह क्या ? जितनी देर में मैंने अपने दाहिने तरफ वाली ट्रक को क्रॉस किया यह ट्रक तो एकदम पास आ गया. ऐसा क्यों ? और तब मैंने वह नोटिस किया जो सड़क दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा कारण है।  मेरे सामने वाला ट्रक खड़ा था - वह चल ही नहीं रहा था , कोहरे और नौसिखियापन की वजह से यह गलती हुई थी । और इस गति से मैं अगले 5-6 सेकंड में उस ट्रक में घुसने वाला था। राइट ले नहीं सकता था क्योंकि वह ट्रक अभी पूरा ओवरटेक नहीं हुआ था।  वह 5 सेकंड शायद आज तक के सबसे निर्णायक 5 सेकंड हैं मेरी ज़िंदगी के।  मुझे ऐसे में अपने असली ड्राइविंग गुरु का ध्यान आया जिसने मुझे कार चलाना सिखाया था - संजय यादव ! संजय कहता था - " सर कभी एक साथ ब्रेक मत मारना, यूनिफार्म ब्रेक मारना जिससे कार स्किड न हो।"   मैंने प्लान बना लिया था , हल्के ब्रेक लेकर अपनी स्पीड कम की और दाहिने वाले ट्रक को आगे निकलने का इंतज़ार किया। प्लान यह था कि जैसे ही राइट वाला ट्रक आगे निकलेगा, मैं फुर्ती से राइट लेन  में आ जाऊंगा - मन में बस यह उम्मीद थी कि तब तक सामने वाले ट्रक से कुछ फासला बना रहे।  मैं अपनी जान बचाने के बारे में 50 % पक्का था , क्योकि मैंने रिस्क मैनेजमेंट कर लिया था।  फुर्ती से कम से कम इतना राइट तो ले ही लूंगा कि कार की राइट साइड टक्कर से बच जाए।  लेफ्ट साइड की कार टकरा जाएगी यह पक्का था पर मुझे इतनी चोट तो नहीं आएगी कि जान चली जाए। यह सब प्लान मेरे दिमाग में 2 - 3  सेकंड में ही बन गया।  पता नहीं दिमाग की कौन सी सेल सक्रिय हो गई थी। 

तो मैंने प्लान के मुताबिक काम किया। राइट साइड वाला ट्रक आगे निकला , मैंने फुर्ती से स्टीयरिंग मोड़कर सीधा किया , मेरी कैलकुलेशन ठीक थी - टकराने से लगभग 20 गज पहले कार की राइट साइड सामने खड़े दानव की रेंज से बाहर आ गई थी , मैंने थोड़ी और फुर्ती दिखाकर लेफ्ट साइड भी बचाने की कोशिश की - आधे सेकंड पहले कार के क्रैश हो जाने की कीमत पर जान बचने में खुश था , अब जान बचते देख अपनी प्यारी कार को डैमेज होने से बचाने की चिंता हो गई। मानव स्वभाव सचमुच विचित्र है। फाइनली वह ट्रक एकदम सामने आ गया , मैं एक तगड़े झटके के लिए तैयार हो गया - काफी धीमी होने पर भी लगभग 40 - 50 की स्पीड अब भी थी।

पर किस्मत मेहरबान थी।  कार की लेफ्ट साइड भी बच गई थी।  बस साइड मिरर 'धाड़'  से उस ट्रक के किनारे में लगा।  मैंने रियर व्यू देखा , सौभाग्य से पीछे कोई वाहन नहीं था नहीं तो पीछे से कार का कचूमर बनना तय था. मैंने कार उसी दैत्य के आगे रोकी और स्टीयरिंग पर सर रखकर आँखें बंद कर लीं  , पूरा शरीर पसीने से तर-बतर था और धड़कन की आवाज़ एकदम मोटर की तरह सुनाई दे रही थी। जान बचने का सुकून और गुजरे खतरे की भयावहता ने मिलकर एक नई भावना को जन्म दिया था जिससे मैं आज तक अनजान था।  15 मिनट मैं आँख बंद किए पड़ा रहा फिर उतरकर कार की लेफ्ट साइड देखी।  साइड मिरर का नामो निशान नहीं था।  फिर पीछे देखा - 20  गज पर साइड मिरर पड़ा था - सैकड़ों टुकड़ों में चूर-चूर।  मुझे लगा वह मेरी खोपड़ी चकनाचूर पड़ी है - और यह सोचते ही मैं दुबारा पसीने में नहा गया। 

इस घटना से मैंने दो बातें सीखीं  - एक कि अंतिम समय तक प्रयास करने पर कई बार वह काम भी हो जाते हैं जिनके चांसेस लेशमात्र के हों।  और दूसरा यह कि जब जान पर बनी हो तो दिमाग विलक्षण रूप से तेज़ चलता है. और चाहे इसको अच्छा कहा जाए या बुरा - एडवेंचर से तौबा उस घटना के बाद भी मैंने नहीं की। 

और हाँ , वहां से मैं वापस 90 किलोमीटर दिल्ली नहीं लौटा , 220 किलोमीटर आगे सीकर गया - पर बहुत सावधानी के साथ , और 2  दिन बाद वापस दिल्ली भी आया। डर ने डर को ख़त्म कर दिया था। 


Wednesday 8 July 2020




जलता तार कौन छुए ? लेकिन आग के स्रोत को शांत किए बिना क्या आग बुझेगी?  

कोरोना महामारी के चलते पूरे देश ने भीषण कष्ट झेला और अभी इससे भी ज्यादा बुरा समय आगे दिख रहा है. निस्संदेह भारत में संक्रमित लोग सभी देशों से अधिक होंगे क्योंकि हमारी आबादी इतनी ज्यादा है और संसाधन सीमित. बड़े बड़े नेता और सामाजिक हस्तियों ने भाषण दिए. सलाहें दीं कि इस तरह की मुसीबतों से कैसे निपटा जाए। यह सबसे सही सन्देश था परिवार नियोजन के बारे में एक साफ़ सन्देश देने का और शायद कड़े नियम बनाने का।  आबादी ऐसी बड़ी समस्या बन गई है कि किसी भी आपदा का असर हमारे लिए कई गुना तक बढ़ जाता है।  

पर हम आग के स्रोत की तरफ नहीं देखते और जलती चीजों पर पानी डालते हैं।  स्रोत धधक रहा है , बच्चे धड़ाधड़ पैदा किए जा रहे हैं।  खाने पीने का ठिकाना नहीं , आपातकाल के लिए बचत नहीं, पेरेंटिंग का कोई ज्ञान नहीं पर हमारे युवा खुद को चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य समझे बैठे हैं - उत्तराधिकारी ज़रूर चाहिए। इन उत्तराधिकारियों को बस में धक्के खाते , आधी मजदूरी पर काम करते , नौकरी के लिए दर दर भटकते और 35 - 40 की उम्र में भी माँ बाप का मुंह ताकते हम सबने देखा है पर क्या करें ? परंपरा भी तो की चीज है ,

मजे की बात यह है कि बड़े से बड़े सुधारक भी इससे कन्नी काटते नज़र आते हैं।  गरीबों और उनके बच्चों के लिए बढ़िया काम करने वाले NGO भी सड़क पर भीख मांगते और ढाबों पर काम करते बच्चों को स्कूल भेजते हैं , खाना पानी दवाई किताबें बांटते हैं , पर उनके माँ बाप को गर्भ निरोधक नहीं बांटते। नेता मंत्री आदि गरीबी कम करने के सब्ज़बाग दिखाते हैं, पैसा राशन बांटते हैं , अपनी जाती धर्म की रक्षा का पाखंड करते हैं - पर समाज की उन्नति के लिए सबसे जरुरी 'जनसंख्या नियंत्रण' की बात गोल कर जाते हैं। 

 गरीब मजदूर से सहानुभूति दिखाते समय हमेशा मेरे मन में यह ख्याल भी आया है कि अगर यह सब बस एक एक बच्चा पैदा करते तो क्या इनकी हालत ऐसी ही होती ? पर जब भी मैं यह बात किसी बुद्धिमान व्यक्ति से कहता हूँ वह तुरंत गरीबी , अशिक्षा , जानकारी का अभाव , गर्म जलवायु , काम उम्र में शादी , मनोरंजन के साधनों का अभाव आदि कारण बताना शुरू कर देता है - अरे यह सब कारण मैं दसवीं में पढ़ चुका हूँ - "जनसंख्या विस्फोट" पर निबंध में पढ़ चुका हूँ , और सब पढ़ चुके हैं। जागरूकता की इतनी कमी नहीं है - मैं उस उम्र से TV पर गर्भ निरोधक गोलियों के विज्ञापन देख रहा हूँ जब इनके बारे में पूछने पर 'sex education' के कॉन्सेप्ट से अनभिज्ञ मेरी मम्मी इधर उधर की बातें करके जवाब देने से खुद को बचा लेती थीं और साथ बैठी आंटी से कहती थीं कि TV पे जाने क्या क्या दिखाने लगे हैं। 

तो जानकारी का ऐसा अकाल नहीं है।  अकाल है ज़िम्मेदारी का और self realisation का।  शादी के दो साल होने पर जब लोग हमसे परिवार आगे बढ़ाने के बारे में घुमा फिरा कर पूछते हैं या 'अब तुम भी सोचो' टाइप सलाह देते हैं तो मुझे समझ में आ जाता है कि जनसँख्या विस्फोट के कारण केवल वह नहीं हैं जो दसवीं के निबंध में पढ़े थे। 

- मयंक 

Thursday 7 May 2020

समाज को समय के आधार पर दो भागों में बांटा जा सकता है।

एक बुद्ध से पहले का मान्यताओं , रूढ़ियों और अन्धविश्वास का समाज और दूसरा बुद्ध के बाद का तर्क , तथ्य और सत्यान्वेषण का महत्त्व समझने वाला समाज।  बुद्ध पहले थे जिन्होंने प्रश्न और तर्क करने का सुझाव दिया और मान्यताओं को परखने की बात की।

हम सौभाग्य से बुद्ध के बाद के समाज में जन्मे हैं, और दुर्भाग्य से मान्यताओं को तर्क और प्रश्न से परे रखते हैं। बुद्ध के बारे में अवश्य सबको जानना चाहिए, यह जानकारी बौद्ध साहित्य से न मिले तो और भी उत्तम।

बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनाएं !




Saturday 7 March 2020

दो नावों की सवारी (मयंक शर्मा )

बचपन से सुनता रहा अलग अलग लोगों से ,
अलग अलग हालात में , अलग अलग लहजे में
डांटते समझाते माँ बाप से या रजाई में दादी-नानी से
लाख टके की बात हो जैसे , बड़े लोग समझाते थे
" दो नावों की सवारी , मतलब डूबने की तैयारी"

बड़ा होने पर पढ़े कवियों के मुक्तक दोहे
कहानियों की शिक्षाएं , पाठ्य पुस्तक की बोध कथाएं
शब्द बदले भाव नहीं, जैसे दादी की कहानी की बस बदल गई हो वर्दी
" लालच में दोनों गए , माया मिली न राम"
" दो नावों की सवारी , मानो डूबने की तैयारी "

पता नहीं क्यों नहीं जमी यह सूक्ति कभी मुझको
तर्क आत्मसात नहीं कर सका मान्यता को
माना दो नावों पर साथ चढ़ना जोखिम है ,
पर दूसरी नाव की ज़रूरत पड़ सकती है यह तो लाज़िम है
जिस नाव पर भरोसा किया वही मंझधार में डूबने लगी तो ?

तो हमेशा , हर जगह दूसरी नाव तैयार रखी मैंने
पहली नाव से सस्ती पर भरोसेमंद
पहली से थोड़ी कमज़ोर , फिर भी उपयोगी
पहली से कम खूबसूरत , पर टिकाऊ
जो भले ही उतनी तेज़ न हो , पर कम से कम डूबे नहीं

आज डूबते देखता हूं कई एक नाव वालों को ,
उनकी तेज़ , मजबूत नावें डूब रही हैं उनको लेकर
सर्वस्व जिसपर लगा दिया वही  धोखा दे गया  बहुतों को
जैसे इनकी डूबी है , वैसे मेरी भी डूब सकती है
शुक्र है मेरे पास एक और नाव है
हल्की सही , सुस्त सही , कमज़ोर सही , बेकार सही
पर क्या तिनका ही बड़ा सहारा नहीं होता डूबने वाले को ?