Tuesday 30 January 2018

रोना किसलिए ?




तब समय निराला रहता था ,
जीवन मय प्याला रहता था ,
जो पत्थर सम भरी है अब ,
वह मन मतवाला रहता था ,


पर टूट गया जब छूट गया
रक्षक ही निधि जब लूट गया

अब सार नहीं , आधार नहीं ,
यह जीवन अब उपहार नहीं ,
वह मुस्काहट हर बार नहीं ,
और प्यार नहीं , पर रोना क्या ?

निज खुशियों पर हँसना भूले ,
उसकी पीड़ा पर दुखी हुए ,
खुद ज्यों के त्यों संतुष्ट रहे ,
उसके हित अथक प्रयत्न किये

फिर भी तो हाथ से फिसल गया,
मतलब बनते ही निकल गया.


अब जीवन में संगीत नहीं
वह जीत नहीं वह रीत नहीं
मन से प्यारा मनमीत नहीं
और प्रीत नहीं पर रोना क्या ?

होंगे वह और जो रोते हैं,
जो बाकी , वह भी खोते हैं.
फेरते निगाह भविष्यत् से ,
बोझा अतीत का ढोते हैं.

यहाँ थोड़ी अलग कहानी है,
खुशियाँ तो आनी जानी हैं .

माना अब वह सहचार नहीं ,
अभिसार नहीं, आसार नहीं .
पर हृदय को दुःख स्वीकार नहीं ,
कुछ भार नहीं , तब रोना क्या ?

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