Tuesday 30 January 2018

बदले आखिर गाँव हमारे !





पिछले दिनों लगभग 8 वर्ष बाद अपने पैतृक गाँव जाना हुआ  वहां हुए परिवर्तन  विकास (अथवा ह्रासने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया  अब ये वो पुराने गाँव नहीं रहेबदल गए हैं 

नहीं झोपड़ी नहीं तबेला,
 कोई बच्चा गन्दा मैला
नहीं बाग़ नहीं वो अमराई ,
 ही बैल  ही गाय पछायीं 
नहीं ताश नहीं वो ठलुआई ,
नहीं हँसी ठट्ठा वो भाई 
ना वो कच्चे आँगन द्वारे ,
बदले आखिर गाँव हमारे 


ना वो लाल रिबन की चोटी ,
भारी कुनबा साझी रोटी 
 अब कहीं पंचायत होती ,
ना आँगन में कुतिया सोती
ताऊ नहीं दातौन चबाते ,
ना चाचाजी डंड लगाते 
सब रोजी रोटी के मारे ,
बदले आखिर गाँव हमारे 


चूल्हे देते नहीं दिखाई ,
कहाँ दही,कहाँ दूध मलाई !
सभापति का घोड़ा छूटा ,
सैंट्रो पर मन उनका टूटा 
ना ठाकुर ताजिया उठाते ,
ना हाजी रामायन गाते 
साबिर - विक्रम हुए न्यारे ,
बदले आखिर गाँव हमारे 

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